गुदगुदी करने पर आदमी की तरह क्यों हंसते हैं चिम्पैंज़ी?

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गुदगुदी करने पर आदमी की तरह क्यों हंसते हैं चिम्पैंज़ी?

कभी आपने सोचा है कि हमें हंसी क्यों आती है? शरीर के किसी ख़ास हिस्से को छूने पर गुदगुदी क्यों होती है?

नहीं सोचा ना?

तो चलिए, आज हंसी और गुदगुदी की ही बात करते हैं.

इंसानों के पुरखे बंदरों के रिश्तेदार थे, ये तो हम सब जानते हैं. लेकिन क्या आपको पता है कि इंसान को हंसने का हुनर भी बंदर परिवार से ही विरासत में मिला है.

हम ख़ुश होते हैं तो हंसते हैं. कोई बात अच्छी लगती है तो मुस्कुराते हैं. तो क्या ये सब चिम्पैंज़ी, बोनबोन जैसे प्राइमेट्स यानी वानर परिवार के सदस्यों के साथ भी होता है?

अमरीका की मेरीलैंड यूनिवर्सिटी के प्रोफ़ेसर रॉबर्ट प्रोविन का कहना है कि गुदगुदी होने पर हंसी का आना विज्ञान में रिसर्च का एक बड़ा विषय रहा है.गुदगुदी का एक प्रकार है नाइस्मेसिस. इसमें बदन के कुछ ख़ास हिस्सों को धीरे-धीरे सहलाने पर आपको गुदगुदी होती है. जैसे पैर के निचले हिस्से को सहलाने पर या गर्दन पर उंगलियां फेरने से गुदगुदी महसूस होती है.

लेकिन इससे सिर्फ़ एक अच्छा-सा एहसास होता है. खुलकर हंसी नहीं आती. इस गुदगुदी का एहसास छिपकली जैसे रेंगने वाले जीवों को भी होता है.

दूसरे प्रकार का नाम है गार्गालिसिस. इस गुदगुदी का एहसास स्तनधारी जीवों को ही होता है. इसमें खुलकर हंसी आती है. गुदगुदी का एहसास त्वचा में छुपी उन नसों को छूने से होता है जिन पर हम किसी भी चीज़ के लगने को महसूस करते हैं जबकि खिलखिलाकर हंसना एक सामाजिक बर्ताव है.

2009 में छपी एक रिपोर्ट के मुताबिक़ इंसान के हंसने की सलाहियत के तार हमारे दूसरे रिश्तेदारों यानी प्राइमेट्स के हंसने से जुड़े हैं.

इस रिसर्च में बंदरों के कुनबे के बहुत से सदस्यों की अलग-अलग आवाज़ों को रिकॉर्ड किया गया. कुछ आवाज़ें सिर्फ़ एक शोर की तरह सुनाई दीं जबकि कुछ आवाज़ें इंसान के हंसने की आवाज़ से मेल खाती थीं.

इनमें गोरिल्ला और बोनोबो बंदरों की आवाज़ें इंसानों के सबसे क़रीब पाई गईं.

इस रिसर्च को ब्रिटेन की यूनिवर्सिटी ऑफ़ पोर्ट्समथ की मरीना डेविला-रॉस ने किया था.

बंदर या गोरिल्ला को हंसने के लिए क्या चाहिए?
रिसर्च के दौरान अपने तज़ुर्बे में कुछ बच्चों की माओं को भी शामिल किया गया था. साथ ही कुछ चिड़ियाघरों के रखवालों को भी चिम्पैंज़ी और बोनोबो बंदरों को गुदगुदी करने के लिए राज़ी किया गया था. इन्हें गुदगुदी करने के बाद बच्चों की आवाज़ रिकॉर्ड की जाती थी.

मरीना ने पाया कि किसी भी बंदर का बच्चा किसी और को देखकर तभी हंसता था जब ख़ुद उसे गुदगुदाए जाने का एहसास होता था. तभी वो पहले धीरे-धीरे मुस्कुराते हैं. फिर ठहाके वाली हंसी हंसते हैं.

यानी किसी बंदर या गोरिल्ला को हंस

दो तरह की गुदगुदी

ने के लिए ज़रूरी है कि वो अपने साथियों के साथ खेल-कूद रहा हो. वो इस दौरान एक दूसरे को गुदगुदी करते हैं. इंसानों के बच्चे भी ऐसे ही करते हैं.

अगर किसी चिम्पैंज़ी को गुदगुदी की जाती है तो वो हांफता है. जिसका मतलब है कि वो चीज़ उसे अच्छी लग रही है, और वो हमला नहीं करेगा. और इसी आवाज़ में बहुत तरह के उच्चारण सुनाई पड़ते हैं.

दो करोड़ साल पुराना गुदगुदी का एहसास
प्राइमेट्स परिवार से हमारा ताल्लुक़ सदियों पुराना है. इंसान की नस्ल क़रीब एक से डेढ़ करोड़ साल पहले अलग हो गई थी. लेकिन गुदगुदी और हंसी का बर्ताव हमें इन्हीं पुरखों से मिला. यानी हंसी और गुदगुदी का एहसास डेढ़ से दो करोड़ साल से भी पुराना है.

सिर्फ़ इंसान या बंदरों के परिवार के सदस्य ही नहीं ख़ुशी महसूस करते. ये एहसास कई और जानवरों में भी पाया जाता है - जैसेकि कई कुत्तों को भी आप खेलते-कूदते, मस्ती करते देख सकते हैं.

पैट्रीशिया सिमोनेट ने अपने पालतू कुत्ते को खेलते और मस्ती करते हुए देखा था. वो ऐसी आवाज़ निकाल रहा था जो हंसी की तरह महसूस हो रही थी.

इस रिसर्च से पहले ब्रिटेन की इथोलॉजिस्ट पैट्रीशिया सिमोनेट ये पता लगा चुकी थीं कि एशियाई हाथी भी खेलते हुए हांफ़ते हैं और कई तरह की आवाज़ निकालते हैं जो इंसानी हंसी से मेल खाती है.

कीनिया के हाथियों के एक्सपर्ट प्रोफ़ेसर जॉयस पूल ने देखा है कि हाथी भी एक दूसरे को गुदगुदी करते हुए मस्ती करते हैं. उन्हें गुदगुदी कराने में मज़ा आता है. हालांकि हाथियों को गुदगुदी करने पर उनकी हंसी जैसी आवाज़ नहीं निकलती है.

पर बड़ा सवाल ये है कि हंसी क्यों आती है?
क्या सभी जीव-जन्तुओं को गुदगुदी करने पर हंसी आती है? ये ऐसे सवाल हैं जिनके लिए बहुत गहराई से रिसर्च करने की ज़रूरत है.

चूहे ऐसे जीव हैं जिन पर हर तरह की रिसर्च की जाती रही है. वो हंसते हैं या नहीं इस सवाल को लेकर तो पिछले 20 सालों से रिसर्च चल रही है.

इस बहस को किसी हॉलीवुड फ़िल्म ने जन्म नहीं दिया जिनमें हम चूहों को बड़े-बड़े कारनामे करते देख चुके हैं. असल में कुछ वैज्ञानिकों ने चूहों को गुदगुदी करके उनकी आवाज़ रिकॉर्ड की.

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रिसर्च में पता चला कि चूहे खेलने के दौरान एक खास तरह की आवाज़ निकालते हैं जो हमें सुनाई नहीं देती. लेकिन मशीन के ज़रिए ये आवाज़ रिकॉर्ड की गई. रिसर्च करने वाले इस सवाल का जवाब तलाश रहे थे कि क्या ये आवाज़ें इंसान की आवाज़ों से भी मेल खाती हैं.

इस सवाल का जवाब तलाशने के लिए बहुत तरह की रिसर्च की गई. पाया गया कि कुछ ख़ास मौक़ों और हालात में ही चूहे कुछ ख़ास तरह की आवाज़ निकालते हैं और उस दौरान चेहरे के भाव भी बदल जाते हैं.

स्विट्ज़रलैंड की बर्न यूनिवर्सिटी के प्रोफ़ेसर लुका मेलोटी ने भी गुदगुदी और हंसी पर काफ़ी रिसर्च की है. वो कहते हैं कि जब गुदगुदी की जाती है तो इंसान के दिमाग़ का वो हिस्सा सक्रिय हो जाता है जहां उसे खुशी का एहसास होता है.

जैसे कि सेक्स या खेल के वक़्त हमें अच्छा एहसास होता है. इसीलिए उस दौरान हमारे भाव और हमारी आवाज़ अलग होती है.

वानरों के बच्चों की हंसी पर रिसर्च करने वाली प्रोफ़ेसर डेविला-रॉस का कहना है कि वानरों के बच्चे गुदगुदी का सबसे ज़्यादा आनंद लेते हैं. एक बार अगर उन्हें गुदगुदाना शुरू करो तो जब तक उनका दिल नहीं बहल जाता वो चाहते हैं उनके साथ वैसा ही व्यवहार किया जाता रहे.

यही बात चूहों के बारे में प्रोफ़ेसर मेलोटी भी कहते हैं. उनका कहना है कि चूहे के बच्चों को भी अगर रिसर्चर एक बार गुदगुदाता था तो वो उसके हाथ पर इसी आस में घूमते रहते थे कि उन्हें और गुदगुदाया जाए.

...तो क्या सभी जानवर गुदगुदाने पर हंसते हैं
कुछ रिसर्चरों का तो ये भी कहना है कि अगर स्तनधारियों, चूहों आदि में गुदगुदाने और हंसाने का इतिहास एक जैसा ही है तो कहा जा सकता है कि इंसान क़रीब आठ करोड़ साल पहले ही वजूद में आ चुका था. साथ ही इंसानी दिमाग़ में खुशी का एहसास करने वाली कोशिकाएं बहुत पहले ही विकसित हो चुकी थीं.

लेकिन सभी रिसर्चर इस बात से सहमत नहीं हैं. उनका कहना है कि इस बात को दावे के साथ कहने के लिए अभी बहुत-सी रिसर्च करने की ज़रूरत है. सभी जानवर गुदगुदाने पर हंसते हैं - ये बात भी पुख़्ता तौर पर नहीं कही जा सकती. इंटरनेट पर आज जानवरों को गुदगुदी करने के तमाम वीडियो मौजूद हैं. इन्हें ख़ूब देखा जाता है.

इन जानवरों को देख कर लगता है कि वो मुस्कुरा रहे हैं. जबकि असल में वो उस बर्ताव से डरे हुए होते हैं. यहां तक कि हमारे पालतू कुत्ते और बिल्लियां भी सहलाए जाने या गुदगुदाने का इतना लुत्फ़ नहीं उठाते जितना हम समझते हैं.

यहां तक कि इंसान में भी ये बर्ताव एक जैसा नहीं है. कुछ लोगों को हाथ लगाने भर से ही गुदगुदी होने लगती है तो कुछ को गुदगुदी करने से तकलीफ़ होने लगती है.

इंसान तो कह भी सकता है कि वो कैसा महसूस कर रहा है, लेकिन जानवर तो कह भी नहीं पाता. इसलिए जानवरों में खुशी का जज़्बा तलाशने के लिए अभी और गहराई से रिसर्च करने की ज़रूरत है. अगर रिसर्च कामयाब रहे तो जानवरों को क़ैद में भी खुश रखना आसान होगा.

फ़िलहाल तो गुदगुदाइए कि आप इंसान हैं.

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