अरबों किलोमीटर का सफ़र संभव

अरबों किलोमीटर का सफ़र संभव

बहुत से लोग अंतरिक्ष में दूर तक की सैर का ख़्वाब देखते हैं. मगर अंतरिक्ष तो अनंत है. उसका कोई ओर-छोर नहीं. इंसान ने अब तक अरबों किलोमीटर के इसके विस्तार के एक हिस्से को ही जाना है. और मौजूदा अंतरिक्ष यान से आकाश के उस कोने तक पहुंचकर वापस धरती पर आना किसी एक इंसान की ज़िंदगी में मुमकिन नहीं.

तो आख़िर कौन सा ज़रिया हो सकता है जिससे अंतरिक्ष में अरबों किलोमीटर का सफ़र हम जल्द से जल्द तय कर सकें? फिर वहां से आकर बाक़ी लोगों को इस सफ़र की दास्तां सुना सकें.

मौजूदा तकनीक में तो ये मुमकिन नहीं. शायद हमें स्टार ट्रेक सीरीज़ के रॉकेट साइंटिस्ट ज़ेफ्राम कॉकरेन के कमाल का इंतज़ार करना होगा. जिन्होंने 4 अप्रैल 2063 तक अपने नए यान वार्प ड्राइव का परीक्षण करने का एलान किया था.

कॉकरेन का तजुर्बा कामयाब होता है तो अंतरिक्ष का सफ़र चुटकी बजाने जैसा हो जाएगा. इंसान ब्रह्मांड के उस कोने तक चुटकी बजाते पहुंच सकेगा, जहां जाने का ख़्वाब तक उसने नहीं देखा.

मगर ये तो हुई फ़िल्मी बातें. क्या असल ज़िंदगी में भी ऐसा होना मुमकिन है? कुछ वैज्ञानिक इसका जवाब हां में देते हैं. वो मानते हैं कि आइंस्टीन का ये फ़ॉर्मूला कि कोई चीज़ रौशनी से ज़्यादा तेज़ रफ़्तार से नहीं चल सकती, उसे एक वक़्त में ग़लत साबित किया जा सकेगा.

अगर ऐसा हुआ तो हम ब्रह्मांड के दूर-दूर के कोने तक जाकर धरती पर वापस आ सकेंगे, वो भी अपनी ज़िंदगी में ही.

फिलहाल तो इंसान की बनाई कोई चीज़ जो ब्रह्मांड में अब तक सबसे लंबा सफ़र तय कर चुकी है, वो है अमरीका का अंतरिक्ष यान वोएजर 1. ये स्पेसक्राफ्ट, अब तक क़रीब 21 अरब किलोमीटर का सफ़र अंतरिक्ष में कर चुका है. यानी ये धरती से क़रीब साढ़े बारह अरब मील दूर है. इसकी रफ़्तार है 17 किलोमीटर प्रति सेकेंड.

मगर याद रखिए, वोएजर 1 को आज से क़रीब 40 साल पहले अंतरिक्ष में भेजा गया था. उसमें 70 के दशक की तकनीक का इस्तेमाल हुआ था. तबसे आज तक अंतरिक्ष की दुनिया बहुत बदल चुकी है.

आज वैज्ञानिक इतने लंबे सफ़र को एक इंसान की औसत ज़िंदगी के दरमियान पूरा करने का सपना संजो रहे हैं.

इसके लिए कुछ लोग सोलर सेल या सौर पतवार से बने यान भेजने की वक़ालत करते हैं. वहीं स्टीफ़न हॉकिंग जैसे कुछ वैज्ञानिक, इन सौर पतवारों को फोटान की मदद से चलाने का तर्क देते हैं.

ऐसे में नासा के इंजीनियर ब्रूस वीगमैन एक नया नुस्खा लेकर आए हैं. वो अंतरिक्ष के सफ़र पर जाने के लिए एक टूटे हुए छाते जैसे यान की कल्पना करते हैं. जिसमें तारों के आकार का एक जाल सा होगा, जिसका आकार पंखे जैसा होगा. इसके बीच में ही रखा जाएगा एक छोटा सा यान. जो इंसान को दूर गगन की छांव में लेकर जाएगा.

ब्रूस वीगमैन का इरादा है कि इस स्पेसक्राफ्ट को वो फोटान की मदद से नहीं, बल्कि सोलर विंड या सौर हवा से चलाएंगे. फोटान वो कण हैं जिनसे रौशनी बनती है. उनकी रफ़्तार इस ब्रह्मांड में सबसे तेज़ मानी जाती है. लेकिन, सूरज से फोटान के साथ साथ कुछ और कण भी निकलते रहते हैं, जिन्हें सोलर विंड कहा जाता है.

इन्हीं की मदद से ब्रूस वीगमैन अपने टूटे हुए छाते जैसे स्पेसक्राफ्ट को दूर अंतरिक्ष में भेजना चाहते हैं.

ब्रूस वीगमैन को लगता है कि अगर वो इस सपने को हक़ीक़त में तब्दील कर पाए तो, अंतरिक्ष की सैर ख़्वाब नहीं, हक़ीक़त होगी. ब्रूस की तकनीक कामयाब रही तो अंतरिक्ष में जो दूरी वोएजर 1 ने 40 साल में तय की है, वो ब्रूस का यान 10-12 साल में पूरी कर लेगा. प्लूटो ग्रह तक पहुंचने में महज़ छह साल लगेंगे. वहीं बृहस्पति तक तो केवल दो साल में अंतरिक्ष यान पहुंच जाएगा.

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मगर ब्रूस जिस तकनीक की बात कर रहे हैं, उसे कामयाब बनाना इतना आसान भी नहीं. अमरीका की मिशिगन यूनिवर्सिटी के थॉमस ज़ु्र्बुचेन कहते हैं कि इसमें कई दिक़्क़तें आएंगी.

सूरज से सबसे ज़्यादा जो चीज़ निकलती है, वो है रौशनी. किसी सौर पतवार या सोलर सेल में उतनी ही ताक़त होती है जितनी ताक़त से एक चॉकलेट को धरती अपनी तरफ़ से खींचती है. सौर हवा या सोलर विंड की ताक़त तो उसका हज़ारवां हिस्सा भी नहीं होती.

ऐसे में किसी यान को अंतरिक्ष में अगर सौर पतवार की मदद से भेजा जाएगा तो कुछ सौ मीटर की सौर पतवार से काम चल जाएगा. मगर, ब्रूस विगमैन जिस ब्रोकेन अम्ब्रेला तकनीक की बात कर रहे हैं, उसका विस्तार कम से कम चालीस किलोमीटर होना चाहिए. यानी एक शहर के बराबर. अंतरिक्ष में तारों का इतना बड़ा जाल बुनना आसान काम नहीं.

थॉमस ज़ुर्बुचेन कहते हैं अंतरिक्ष में छोटे-छोटे यान भेजना तो मुमकिन है. मगर उन्हें चलाने के लिए तारों का इतना लंबा-चौड़ा जाल आख़िर कैसे बुना जाएगा? फिर तारों के साथ दिक़्क़त है कि वो टूटते रहते हैं.

ज़ुर्बुचेन कहते हैं कि इंसान पिछले सौ से ज़्यादा सालों से तारों का इस्तेमाल करता रहा है. मगर मज़बूत से मज़बूत तार टूट जाते हैं. या उनके अंदर अगर बिजली दौड़ाई जाती है तो वो जल भी जाते हैं.

ऐसे में अंतरिक्ष में जब तारों से बना ब्रूस विगमैन का ब्रोकेन अम्ब्रेला उड़ेगा, तो कब कौन सा तार टूटेगा, कहना मुमकिन नहीं. वैसी सूरत में पूरा मिशन नाकाम हो जाएगा. फिर सफ़र के दौरान अगर वो कहीं किसी धूमकेतु या उल्कापिंड से जा टकराया, तो पूरा सत्यानाश ही हो जाना है.

ब्रूस के ब्रोकेन अम्ब्रेला स्पेसक्राफ्ट के बजाय ज़ुर्बुचेन सलाह देते हैं कि दूर भेजे जाने वाले अंतरिक्ष यान या तो सोलर सेल, या फिर एटमी ताक़त की मदद से चलने वाले हों. वो कहते हैं कि दोनों ही तकनीक का मिल-जुलकर भी इस्तेमाल किया जा सकता है.

लेकिन, ज़ुर्बुचेन, ब्रूस विगमैन के इरादों को पूरी तरह ख़ारिज भी नहीं करते.

इसीलिए विगमैन ख़ुद बहुत उत्साहित हैं. वो इन दिनों अपनी टीम के साथ इस बारे में तमाम तरह के प्रयोग कर रहे हैं. उन्हें उम्मीद है कि 2020 तक वो इसकी तकनीक तैयार कर लेंगे.

ब्रूस विगमैन का कहना है कि किसी भी ख़्वाब को हक़ीक़त में तब्दील करने में वक़्त लगता है. शुरुआत कहीं न कहीं से तो करनी होती है. फिर इसमें जो तकनीक इस्तेमाल होनी है, उसे भी विकसित करना है. अगर वो तकनीक कामयाब साबित होती है. तो फिर बड़ा काम रह जाएगा इंजीनियरिंग का. जिसकी मदद से इतना बड़ा तारों का छाता अंतरिक्ष में बुनकर तैयार करना होगा.

अगर अगले चार सालों में ऐसा हुआ, तो 21 अरब किलोमीटर दूर जा चुके वोएजर 1 को पछाड़ना मुमकिन होगा

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