बॉस की हां में हां मिलाना कितना फ़ायदेमंद

बॉस की हां में हां मिलाना कितना फ़ायदेमंद

हम सब किसी भी तरह के वाद-विवाद से दूर रहना चाहते हैं. जब हम किसी से असहमत होते हैं तब भी हम दोस्ती बनाए रखना चाहते हैं. हम अपने शब्दों और बॉडी लैंग्वेज से ऐसे संकेत देते हैं कि हम मिलकर रहना चाहते हैं.

लॉबोरो यूनिवर्सिटी में कन्वर्जेशन एनालिसिस की प्रोफ़ेसर एलिजाबेथ स्टॉकी कहती हैं, "हम दूसरों को मौके भी देते हैं. अपनी बातचीत को नियंत्रित रखते हैं और लोगों को अपनी बात मनवाने की कोशिश करते हैं."

ऑफ़िस में तो हम कतई नहीं चाहते कि कोई विवाद हो या किसी से मनमुटाव हो. जिनकी बगल में रोजाना 8 घंटे बैठना हो उनसे भला कौन झगड़ना चाहता है?

अगर साथ काम करने वाला बॉस है तब तो झगड़ने का कोई फ़ायदा ही नहीं.

हॉर्वर्ड बिज़नेस रिव्यू 'गाइड टू डीलिंग विद कन्फ्लिक्ट एट वर्क' की लेखिका एमी ई. गेलो का कहना है कि किसी भी कीमत पर टकराव टालने का यह नज़रिया गलत है.

"सभी सोचते हैं कि वे ऐसे कल्पनालोक में काम करें जहां सब एक-दूसरे से सहमत हों. लेकिन अगर हम असहमत ना हों तो हम अच्छा काम नहीं कर पाते. यह असंभव है."

गलतियां सुधारने का मौका
अलग-अलग तरह के मत हों तो लोग असहमत होंगे ही.

गेलो कहती हैं, "कंपनियां हमेशा यह चाहती हैं कि उनके पास भिन्न-भिन्न तरह से सोचने वाले लोग हों और सब मिलकर काम करें. लेकिन जब वे असहमति जताते हैं तो कहा जाता है कि हम अलग-अलग राय नहीं सुनना चाहते."

सफलतापूर्वक काम करने के लिए ज़रूरी है कि लोग अलग नज़रिया सामने रखें.

विज्ञान में जब नये सिद्धांत बनते हैं तो उन्हें ना सिर्फ़ प्रयोग की कसौटी पर कसा जाता है, बल्कि दूसरे वैज्ञानिक उन सिद्धांतों को चुनौती भी देते हैं.

कोलंबिया यूनिवर्सिटी के प्रोफ़ेसर स्टुअर्ट फायरस्टिन इन चुनौतियों को ज़रूरी मानते हैं.

फायरस्टिन कहते हैं, "मैं प्रयोगशाला में कोई नया रिसर्च पेपर तैयार करता हूं, लेकिन रिव्यूअर उसमें कोई बड़ी गलती निकाल देता है."

"मैं उसका शुक्रगुज़ार होता हूं क्योंकि अगर गलतियों को दूर किए बिना मैंने वह पेपर छपवा लिया होता तो सबके सामने मैं गलत साबित होता और बदनामी होती. अभी तो सिर्फ़ मैं और वह रिव्यूअर ही जानते हैं कि मैं बेवकूफ हूं."

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असहमति के फ़ायदे
विज्ञान की यह जांच प्रक्रिया दूसरे क्षेत्रों पर भी लागू होती है. विज्ञान हमें यह मौका देता है कि हम असहमति जताएं.

फायरस्टिन कहते हैं, "लोग एक-दूसरे पर चीखते-चिल्लाते हैं, फिर साथ-साथ बार जाते हैं और शराब पीते हैं. चीज़ें ऐसे ही चलती हैं. आप किसी से कितनी भी असहमति रखें, आदर का एक रिश्ता बना रहता है."

किसी साझा लक्ष्य, नये विचार या वैज्ञानिक सिद्धांत के प्रति हमारी निष्ठा चाहे जितनी गहरी हो, कोई नहीं चाहता कि वह गलत साबित हो. इसलिए असहमति को मौके दीजिए. यह गलत साबित होने के दुःख से अच्छा है.

पहला फ़ायदा यह है कि आपको अपने विचारों को दूसरे विचारों के बरक्स जांचने का मौका मिलता है.

एकेडमी ऑफ़ आइडियाज़ की क्लेयर फॉक्स कहती हैं, "आप दूसरे पक्ष के तर्कों को काटने की कोशिश करते हैं. इससे आपके तर्कों में धार आती है. या फिर यह भी हो सकता है कि आपके ख़्याल बदल जाएं और आप दूसरे पक्ष के तर्कों को मान लें."

दूसरा फ़ायदा यह है कि आप अपने अहंकार को नियंत्रित कर पाते हैं.

लेखक जोनाथन रॉच कहते हैं कि पक्षपात, हठ और ज़िद से बेहतर विचारों का जन्म होता है.

"आप नहीं चाहेंगे कि कोई आपके पास आए जो आपके विचारों से पूरी तरह असहमत हो. बल्कि आप चाहेंगे कि वे अपने विचार रखें और उस पर दूसरे लोगों की राय सुनें. ऐसा होने पर ही आप उनकी ऊर्जा, उनके मत और उनकी असहमति का सही उपयोग कर पाएंगे."

तीसरी बात यह कि इंसानी चतुराई के भी फ़ायदे हैं. हम उन सबूतों की तलाश करते रहते हैं जो हमारे मत को ताक़त देते हों.

अगर विरोधी तर्क नहीं सुनते तो...
मनोवैज्ञानिक ह्यूगो मर्सियर कहते हैं, "यदि आप सिर्फ अपनी सुनते हैं या सिर्फ़ सहमति रखने वालों से बात करते हैं तो आप एकतरफा तर्कों को जमा कर रहे हैं. यह अति आत्मविश्वास को जन्म देता है."

मर्सियर ने प्रोफ़ेसर डैन स्पेर्बर के साथ 'दि इनिग्मा और रीज़न' नामक किताब लिखी है. वे कहते हैं कि तर्क वितर्क करने से हमारी तार्किक क्षमता बढ़ती है. हम अपनी राय के मुकाबले दूसरों की राय को बेहतर तरीके से आंकते हैं.

मर्सियर कहते हैं, "यदि आप दूसरे राजनीतिक पक्ष के लोगों के साथ स्वस्थ चर्चा करते हैं तो वे आपके कमज़ोर तर्कों को ध्वस्त कर देंगे. वे आपको दूसरे पक्ष के विचार देंगे और अंत में सब ठीक हो जाएगा."

अकेले सोचते रहने से हम सिर्फ़ अपने ख़यालों को दुहराते रहते हैं. लेकिन जब हम दूसरों को अपनी बात मनवाने की चुनौती लेते हैं तब हम उनके तर्कों की कमजोरियां ढूंढ़ते हैं. जब हम दूसरों को भी अपनी कमजोरियां ढूंढ़ने के मौक़े देते हैं तब हमारे विचारों की परख होती है.

रोजाना कम से कम एक बार तर्क कीजिए. तर्क दमदार हों और दूसरों का सम्मान करने वाले हों.

गेलो कहती हैं, "असहमति में द्वेष ना हो और यह संकीर्ण ना हो. आप संवेदना, सहानुभूति और उदारता के साथ भी तर्क कर सकते हैं

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