किस देश के लोग करते हैं दफ्तर में सबसे ज़्यादा काम?

get iti website @ 1800/-

 

 

किस देश के लोग करते हैं दफ्तर में सबसे ज़्यादा काम?

अक्सर आप लोगों को शिकायत करते सुनते हैं, कि

'काम बहुत ज़्यादा है'.

'दफ़्तर में देर तक रुकना पड़ता है'.

'यार, मेरे ऑफ़िस जाने का टाइम तो फ़िक्स है, मगर लौटने का नहीं'.

इन बातों से ये लगता है कि ऑफ़िस का टाइम अंतहीन सिलसिला है. काम इतना कि ख़त्म होने का नाम ही नहीं लेता.

भारत में ये मुश्किल इसलिए है, क्योंकि यहां काम के अधिकतम घंटे कितने होंगे, इसकी कोई आधिकारिक पाबंदी नहीं है. अलग-अलग कंपनियों में अलग-अलग नियम है. कहीं हफ़्ते में 60 घंटे काम होता है, तो कहीं 40-45 घंटे.

हमें अपने काम के बोझ का एहसास अक्सर तब होता है, जब हम इसकी दूसरों से तुलना करते हैं.

तो, हिंदुस्तान के हालात का अंदाज़ा लगाने के लिए आप को दक्षिण कोरिया की मिसाल समझनी होगी.

काम के घंटे
दक्षिण कोरिया भारत की तरह नहीं है. वो एक विकसित देश है. मगर वहां हाल ही में सरकार ने एक क़ानून बनाया है. इस क़ानून के मुताबिक़ वहां काम के अधिकतम घंटे तय किए गए हैं. इन्हें 68 से घटाकर 52 घंटे किया गया है. सरकार का मक़सद है कि काम के घंटे कम करके लोगों के काम की क्वालिटी बेहतर की जाए और उनकी उत्पादकता बढ़ाई जाए. उम्मीद ये भी की जा रही है कि इस क़ानून से दक्षिण कोरिया की आबादी बढ़ने की रफ़्तार भी तेज़ होगी. क्योंकि आज वहां के लोग काम में इतने उलझे हैं कि बच्चों की पैदाइश तक कम हो गई है.

मार्च महीने में दक्षिण कोरिया की संसद ने जब ये क़ानून पास किया था, तो वहां की सरकार अपने लोगों को सुस्ताने और ब्रेक के लिए ज़्यादा वक़्त देना चाहती थी. विकसित देशों में दक्षिण कोरिया में काम के घंटे सबसे ज़्यादा हैं. यूरोपीय संगठन ऑर्गेनाइज़ेशन ऑफ़ इकोनॉकमिक को-ऑपरेशन ऐंड डेवेलपमेंट (OECD) के मुताबिक़, 38 देशों के सर्वे में काम के घंटों के मामले में दक्षिण कोरिया अव्वल पाया गया.

काम के घंटे कम करने वाला ये क़ानून, दक्षिण कोरिया में इसी साल जुलाई से लागू होना है. कारोबार जगत सरकार के इस क़दम का विरोध कर रहा है. शुरुआत में ये क़ानून बड़ी कंपनियों पर लागू होगा. लेकिन, आगे चलकर छोटी और मंझोली कंपनियां भी इसकी ज़द में आएंगी.

काम के घंटों का आबादी बढ़ने पर असर
दक्षिण कोरिया की सरकार का मानना है कि इससे न सिर्फ़ कामगारों की उत्पादकता बढ़ेगी, बल्कि रोज़गार के नए मौक़े पैदा होंगे. रहन-सहन बेहतर होगा. लोग बेहतर ज़िंदगी जी सकेंगे. और बच्चे पैदा करने की रफ़्तार में भी इज़ाफ़ा होगा. पिछले कुछ सालों में दक्षिण कोरिया की आबादी बढ़ने की दर कमोबेश थम ही गई है. लोग काम करने के चक्कर में शादियां तक नहीं कर रहे हैं.

2016 के आंकड़े बताते हैं कि दक्षिण कोरिया में औसतन हर कामगार को साल में 2069 घंटे काम करना पड़ता है. उनसे ज़्यादा सिर्फ़ मेक्सिको में 2225 घंटे और कोस्टा रिका में 2212 घंटे काम करना पड़ता है.

अंतरराष्ट्रीय मज़दूर संगठन (ILO) के मुताबिक़, कम विकसित और औसत आमदनी वाले देशों में आम तौर पर काम के घंटे ज़्यादा होते हैं. इसकी कई वजहें होती हैं. जैसे लोग अपना कारोबार चमकाने के लिए ज़्यादा काम करते हैं. लोगों को मज़दूरी कम मिलती है, तो वो ज़्यादा कमाने के लिए ज़्यादा काम करते हैं. नौकरी को लेकर लोगों के मन में डर रहता है. इसलिए भी लोग ज़्यादा देर तक काम करते हैं. बहुत से देशों की सांस्कृतिक मान्यताएं ऐसी होती हैं, जो ज़्यादा काम करने का माहौल बनाती हैं.

काम के दबाव से मौत
वैसे ज़्यादा काम कराने के मामले में सिर्फ़ दक्षिण कोरिया ही इकलौता विकसित देश नहीं है. पड़ोसी जापान का भी यही हाल है. यहां तो ऑफ़िस के काम के दबाव से मौत के लिए एक शब्द भी गढ़ा गया है, 'कारोशी'. इसका मतलब है, दफ़्तर के तनाव से जान जाना. जान जाने की ये घटना बहुत दबाव या ख़ुदकुशी से भी हो सकती है.

जापान में हर कर्मचारी को साल में औसतन 1713 घंटे काम करने पड़ते हैं. और मुसीबत ये कि काम के घंटों पर कैप लगाने के लिए कोई क़ानून भी नहीं है. 2015-16 के वित्तीय वर्ष में जापान में काम के तनाव से जान जाने की 1456 घटनाएं दर्ज की थीं. हालांकि कर्मचारी संगठन ये दावा करते हैं कि ये आंकड़ा बेहद कम है. क्योंकि, ऑफ़िस की टेंशन से मौत के ज़्यादातर मामले दर्ज ही नहीं होते.

इंटरनेशनल लेबर ऑर्गेनाइज़ेशन के मुताबिक़, एशिया महाद्वीप में लोग सबसे ज़्यादा काम करते हैं. यहां के 32 फ़ीसद देशों में काम के घंटे ही तय नहीं हैं. 29 फ़ीसद देशों में हफ़्ते में 60 घंटे या इससे भी ज़्यादा काम करना पड़ता है. एशियाई देशों में केवल 4 फ़ीसद ऐसे हैं, जो इंटरनेशनल लेबर ऑर्गेनाइज़ेशन के मानकों के हिसाब से कर्मचारियों से 48 घंटे या इससे कम काम कराते हैं.

काम करने का जुनून
अमरीकी महाद्वीप और कैरेबियाई इलाक़े के 34 फ़ीसद देशों में काम के घंटे तय नहीं हैं. इनमें अमरीका भी शामिल है.

वहीं मध्य-पूर्व के ज़्यादातर देशों में रोज़ाना काम के घंटे 8 से 10 के बीच हैं, जो हफ़्ते में 60 घंटे या इससे ऊपर बैठते हैं.

यूरोपीय महाद्वीप की हालत बेहतर है. जहां हर देश में काम के घंटे तय हैं. केवल तुर्की और बेल्जियम में ये 48 घंटे से ज़्यादा हैं.

वहीं अफ्रीकी महाद्वीप में तो ऐसा लगता है कि लोगों को काम करने का जुनून है. जैसे कि तंजानिया में 60 फ़ीसद से ज़्यादा आबादी हफ़्ते में 48 घंटे से ज़्यादा काम करती है.

स्विस बैंक यूबीएस की रिपोर्ट ने 2016 में दुनिया के 71 देशों का सर्वे किया था. इसने पाया कि हांगकांग में लोग सबसे ज़्यादा यानी हफ़्ते में 50.1 घंटे काम करते हैं. इसके बाद मुंबई में 43.7, मेक्सिको सिटी में 43.5, दिल्ली में 42.6 और बैंकॉक में 42.1 घंटे का औसत पाया गया.

मेक्सिको के कामगारों को तो दोहरी मार झेलनी पड़ती है. यहां के लोगों को ज़्यादा काम तो करना ही पड़ता है. छुट्टियां भी बहुत कम मिलती हैं. मेक्सिको में साल में तनख़्वाह के साथ छुट्टी यानी पेड लीव 10 दिन से भी कम है. यही हाल नाइजीरिया, जापान और चीन का भी है. वहीं ब्राज़ील में कर्मचारियों को साल में 20 से 23 दिन की पेड लीव मिलती है.

इमेज कॉपीरइटGETTY IMAGES

हो सकता है कि भारत में हालात इससे भी बुरे हों. क्योंकि हमारे यहां तो काम के न्यूनतम घंटे ही तय नहीं हैं. न ही अधिकतम घंटों की कोई मियाद नहीं है. कर्मचारियों की तनख़्वाह की गारंटी का भी कोई नियम नहीं है. और न ही यहां कंपनियां न्यूनतम सालाना छुट्टी देने को बाध्य हैं.

तो, दक्षिण कोरिया तो एक विकसित देश की मिसाल है. तमाम आंकड़े जुटा लेने के बाद हो सकता है कि ये पता चले कि भारत को ऐसे क़ानून की सख़्त दरकार है

ITI Student Resume Portal

रिज्यूम पोर्टल का मुख्य उद्देश्य योग्य छात्रों की जानकारी सार्वजनिक पटल पर लाने की है जिससे जिन्हें आवश्यकता हो वह अपने सुविधा अनुसार छात्रों का चयन कर सकते हैं

ITI Student Resume

Search engine adsence