जीवाणु 1,20,000 साल बाद दोबारा सक्रिय

जीवाणु 1,20,000 साल बाद दोबारा सक्रिय

वैज्ञानिकों को ऐसे बैक्टीरिया या जीवाणुओं को सक्रिय करने में सफलता मिली है जो कि कम-से-कम 1,20,000 वर्षों से निष्क्रिय पड़े थे.

Image captionजीवाणु एक लाख साल से निष्क्रिय थे

पूरा किस्सा ये है कि ग्रीनलैंड में ड्रिलिंग के दौरान क़रीब तीन किलोमीटर की गहराई से निकाले गए हिमखंड में दो अलग-अलग प्रजातियों के जीवाणु मिले थे.

हिमखंड के काल के हिसाब से दोनों जीवाणुओं को भी कम-से-कम एक लाख 20 हज़ार वर्ष पुराना माना गया.

सामान्य जीवाणुओं से क़रीब 50 गुना छोटे आकार के इन दोनों जीवाणुओं को बहुत ही धीरे-धीरे सामान्य माहौल में लाया गया. इस प्रक्रिया में महीनों लगे.

एक बार सक्रिय होते ही बैंगनी रंग वाले इन जीवाणुओं ने अपना कुनबा बनाना शुरू कर दिया. यानि पूरी तरह सामान्य जीवन जीने लगे.

इस चमत्कारिक प्रयोग की रिपोर्ट इस हफ़्ते एक अंतरराष्ट्रीय विज्ञान जर्नल में छपी है. इस अध्ययन की अगुआई करने वाली वैज्ञानिक जेनिफ़र लवलैंड-कर्ट्ज़ के अनुसार इस शोध से इस संभावना को बल मिलता है कि मंगल ग्रह या बृहस्पति ग्रह के चाँद यूरोपा के अति-ठंडे माहौल में भी कोई-न-कोई सूक्ष्म जीव मौजूद हो सकता है.

बारिश कराने में जीवाणुओं की भूमिका?

बैक्टीरिया से जुड़ा एक अन्य अध्ययन यहाँ लंदन में चल रहा है. वैज्ञानिक इस बात की पड़ताल कर रहे हैं कि क्या बैक्टीरिया मौसम को प्रभावित करते हैं?

वर्षों से चल रहे इस अंतरराष्ट्रीय अध्ययन में वैज्ञानिकों को स्यूडोमोनस सिरिन्गे नाम के एक जीवाणु की बरसात कराने में महत्वपूर्ण भूमिका का पता चला है.

दरअसल बरसात होने के लिए ज़रूरी है कि बादलों में मौजूद जलकण जम सके. जलकण शून्य सेल्सियस तापमान पर ही जम जाए ये ज़रूरी नहीं, बल्कि ये उसमें मौजूद अशुद्धियों पर काफ़ी कुछ निर्भर करता है.

वैज्ञानिकों ने पाया है कि स्यूडोमोनस सिरिन्गे नामक बैक्टीरिया की मदद से जलकण को अपेक्षाकृत ऊँचे तापमान पर हिमकण में बदलना संभव है.

मलेरिया के ख़िलाफ़ सक्रिय हुई अंतरराष्ट्रीय परमाणु ऊर्जा एजेंसी

मलेरिया रोग हमेशा ही विश्व स्वास्थ के लिए एक बड़ी चुनौती रहा है. दरअसल मादा एनोफ़िलिज मच्छरों में पलने वाले मलेरिया के परजीवी अलग-अलग दवाइयों के ख़िलाफ़ प्रतिरोध पैदा कर वैज्ञानिकों के लिए मुश्किलें खड़ी कर देते हैं.

कीटनाशकों के ज़रिए मच्छरों का उन्मूलन भी व्यावहारिक समाधान नहीं बन पाया है. ऐसे में अब मलेरिया के ख़िलाफ़ परमाणु वैज्ञानिकों ने मोर्चा खोलने का ऐलान किया है.

अंतरराष्ट्रीय परमाणु ऊर्जा एजेंसी के वैज्ञानिकों को कहना है कि एनोफ़िलिज मच्छरों की संख्या कम करके ही मलेरिया पर नियंत्रण किया जा सकता है. इसके लिए वैज्ञानिकों ने बड़ा ही अनूठा तरीक़ा ढूंढा है.

उनका कहना है कि वे मलेरिया प्रभावित इलाक़ों में बड़ी संख्या में ऐसे नर एनोफ़िलिज मच्छर छोड़ेंगे जिनकी बच्चे पैदा करने की क्षमता विकिरण के ज़रिए ख़त्म कर दी गई हो.

अंतरराष्ट्रीय परमाणु ऊर्जा एजेंसी के वैज्ञानिकों का कहना है कि कि मादा एनोफ़िलिज आमतौर पर अपने जीवन काल में एक बार ही सहवास करती हैं.

ऐसे में बांझ बनाए गए नर मच्छरों से सहवास के बाद मादा एनोफ़िलिज़ के सैंकड़ो की संख्या में दिए जाने वाले अंडों से कोई मच्छर पैदा नहीं हो सकेगा.

अंतरराष्ट्रीय परमाणु ऊर्जा एजेंसी मलेरिया से पार पाने के इस अभिनव तरीक़े का शीघ्र ही उत्तरी सूडान के एक इलाक़े में परीक्षण करने वाली है.

आवर्त सारणी का नया सदस्य

जल्दी ही तत्वों की आवर्त सारणी में एक नया सदस्य जोड़ा जाएगा. यह तत्व अत्यंत भारी तत्वों के वर्ग में जगह पाएगा.

जर्मनी में एक प्रयोगशाला में संलयन संबंधी प्रयोगों के तरह खोजे गए इस तत्व की परमाणु संख्या 112 है.

हम इस तत्व का नाम नहीं बता रहे हैं, सिर्फ़ इसलिए कि अभी तक इसे कोई नाम दिया ही नहीं गया है.

जर्मनी के सेंटर ऑफ़ आयन रिसर्च में निर्मित इस तत्व को जब तक कोई नाम दिया जाए इसे कामचलाऊ नाम यूनुनबियम से जाना जाएगा.

ये शब्द लैटिन भाषा के यूनुनबी से बना है, जिसका मतलब होता है- एक-एक-दो यानि 

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