बच्चों के लिए प्रैम मददगार या ख़तरनाक?

तैयार होकर प्रीति ने प्रैम (पेराम्ब्यूलेटर- बच्चों को घुमाने वाली गाड़ी) निकाली, अपने एक साल के बच्चे को उसमें लिटाया और शॉपिंग के लिए निकल पड़ी.
प्रीति अक्सर बाहर जाते वक़्त बेटे चीकू को प्रैम में ही लेकर जाती हैं. वो कहती हैं कि बच्चे को गोद में लेकर बहुत से काम करना मुश्किल होता है.
प्रीति ने बताया, "चीकू प्रैम में होता है तो घर का ताला लगाने से लेकर शॉपिंग करना, सब्ज़ी खरीदना, टहलना, सब आसान हो जाता है. चीकू प्रैम में दूध पीते-पीते आराम से सो जाता है, उठने पर बैठकर खेलता रहता है और मेरा काम भी हो जाता है. अगर बच्चा गोद में रहता है तो आपको पूरा ध्यान उसपर होता है, फिर कुछ और नहीं कर सकते. बच्चा भी गोदी में परेशान हो जाता होगा."
प्रीति प्रैम के फ़ायदे तो जानती हैं, लेकिन वो इसके नुक़सान से बेखबर हैं. वो नहीं जानती हैं कि प्रैम उनके बच्चे के लिए बेहद ख़तरनाक साबित हो सकता है.
ताज़ा अध्ययन के मुताबिक जो बच्चे प्रैम में होते हैं, उनपर प्रदूषण का प्रभाव बड़ों के मुकाबले 60% ज़्यादा होता है.
यूनिवर्सिटी ऑफ़ सरे में ग्लोबल सेंटर ऑफ़ क्लीन एयर रिसर्च के शोधकर्ताओं ने पाया कि प्रैम में बच्चे ज़मीन से 0.55 मीटर और 0.85 मीटर की ऊंचाई पर सांस लेते हैं.
ज़मीन से एक मीटर की ऊंचाई तक प्रदूषण का स्तर बहुत ज़्यादा होता है, इसलिए इन नवजातों पर बड़ों के मुकाबले वायु प्रदूषण का 60 फ़ीसदी ज़्यादा असर होता है.
प्रैम की ऊंचाई है समस्या
दरअसल प्रैम की ऊंचाई काफ़ी कम होती है, इसलिए गाड़ियों से निकलने वाला धुंआ सीधे उनतक पहुंचता है. नवजातों का बीमारी से लड़ने की क्षमता कमज़ोर होती है, इसलिए प्रदूषित हवाएं उनके स्वास्थ्य के लिए ज़्यादा ख़तरनाक हैं.
सेंटर फ़ॉर सांइस एंड एन्वायरमेंट की अनुमिता राय चौधरी कहती हैं, "हमारे ख़ुद के शोध में ये सामने आया है कि सड़क किनारे प्रदूषण का स्तर बहुत ज़्यादा होता है क्योंकि गाड़ियां हमारे एकदम नज़दीक से गुज़र रही होती हैं. इससे हम गाड़ियों से निकलने वाले ज़हरीले धुंए के सीधे संपर्क में आ जाते हैं. जिस इंसान की ऊंचाई जितनी कम होगी, उसपर प्रदूषण का उतना ज़्यादा असर होगा."
"प्रदूषण जितनी ऊंचाई पर जाता है वो हवा की वजह से फैलता जाता है, लेकिन नीचे उसका स्तर बेहद खतरनाक होता है. इसलिए रोड किनारे प्रैम में चल रहे बच्चे सांस के ज़रिए इस खतरनाक प्रदूषण को अंदर ले लेते हैं जिससे उनके स्वास्थ्य पर गंभीर असर पड़ता है."
यूनिवर्सिटी ऑफ़ सरे की रिपोर्ट में भी इस बात की तस्दीक की गई है.
प्रदूषण का बच्चों के स्वास्थ्य पर असर
दिल्ली के मैक्स अस्पताल के बच्चों के डॉक्टर परविंदर सिंह नारंग कहते हैं, "प्रदूषण की चपेट में आने से कुछ बच्चों को खांसी-ज़ुख़ाम, गले में इंफ़ेक्शन, सांस लेने में दिक्क़त जैसी समस्याएं हो सकती हैं. लेकिन बच्चा लंबे समय तक प्रदूषण की चपेट में रहता है तो आगे जाकर उसे फेफड़ों से जुड़ी बीमारियां हो सकती हैं और सांस की नली की क्षमता पर भी असर पड़ सकता है. प्रदूषण का असर बच्चों के मानसिक विकास पर भी पड़ता है."
उनके मुताबिक बच्चों को धूल, धुएं और दुर्गंध से बचाने की ज़रूरत है. एलर्जी की सबसे बड़ी वजहें यही हैं.
तो क्या बच्चे घर में सुरक्षित हैं?
अनुमिता कहती हैं, "ऐसा नहीं है कि घर में प्रदूषण नहीं होता. लेकिन घर बंद होता है, इसलिए उसमें प्रदूषण का स्तर एक समान रहता है. लेकिन जब हम बाहर, खासकर सड़क के करीब होते हैं तो प्रदूषण का स्तर बहुत ही ज़्यादा होता है, क्योंकि हम गाड़ियों के धुएं वाले पाइप ज़्यादा पास होते हैं. ये धुंआ बहुत ज़हरीला होता है, इसमें छोटे-छोटे ज़हरीले कण होते हैं, ज़हरीली गैस होती है. ये मिलकर ज़हरीला कॉकटेल बना देते हैं. ये नवजात बच्चों के लिए बेहद खतरनाक है."
सेंटर फ़ॉर सांइस एंड एन्वायरमेंट भारत में पर्यावरण संबंधी विषय पर काम करने वाली संस्था है.
विज्ञान और तकनीक, पर्यावरण और वन संबंधी संसदीय समिति ने हाल ही में वायु प्रदूषण से जुड़ी एक रिपोर्ट जारी की थी जिसमें बताया गया कि पिछले पांच साल में दिल्ली में वायु प्रदूषण की वजह से सांस से जुड़ी समस्याओं के 17 लाख मामले सामने आए और 981 मौतें हुईं.
रिपोर्ट के मुताबिक प्रदूषण की वजह से नवजात, बच्चे और दमे के मरीज़ सबसे ज़्यादा प्रभावित हुए हैं.
Image captionभारत में प्रदूषण का स्तर ख़तरनाक है
दुनियाभर के आंकड़े
दुनिया में 10 में से एक बच्चे की मौत वायु प्रदूषण की वजह से हो रही है.
यूनिसेफ़ के मुताबिक वायु प्रदूषण की वजह से होने वाली बीमारियों और इंफ़ेक्शन के चलते दुनियाभर में हर साल 5 साल से कम उम्र के क़रीब छह लाख बच्चों की मौत हो जाती है.
Image captionविशेषज्ञों का कहना है कि बच्चों को ट्रैफ़िक वाले इलाकों में कम ले जाना चाहिए
बच्चों को प्रदूषण से बचाएं?
- जितना हो सके बच्चे को गोद में लेकर बाहर जाएं.
- व्यस्त सड़कों, ट्रैफ़िक सिग्नल और बस स्टॉप जैसे ज़्यादा प्रदूषित इलाकों में बच्चों को ले जाने से बचें.
- प्रैम में ले भी जा रहे हैं तो प्रैम कवर का इस्तेमाल करें.
- प्रदूषण से निपटने की व्यक्तिगत और सामूहिक कोशिशों का हिस्सा बनें.
- सड़क किनारे झाड़ियां लगाकर प्रदूषण के स्तर को कम किया जा सकता है.
- निजी गाड़ियों के बजाए सार्वजनिक परिवहन अपनाएं.
कहां से आया है प्रैम?
दुनिया का पहला प्रैम 1733 में बनाया गया था. प्रसिद्ध आर्किटेक्ट विलियम केंट ने ड्यूक ऑफ़ डेवनशर के बच्चों के लिए इसे बनाया था.
इस पहले प्रैम में एक टोकरी लगी थी जिसे लकड़ी के फ़्रेम पर सेट कर दिया गया था. इसमें चार पहिए लगे थे. इसे कोई बकरी या कुत्ता खींचा करता था.
धीरे-धीरे इंग्लैंड के अमीर परिवारों में बच्चों की ये गाड़ी काफ़ी लोकप्रिय हो गई.
इसके बाद प्रैम के डिज़ाइन में बदलाव कर इसे ऐसा बनाया गया जिससे बच्चों के माता-पिता इस गाड़ी को खींच सकें.
लेकिन बहुत से बच्चे प्रैम से गिर जाते थे, इसलिए हैंडल के बीच में एक बार लगा दिया गया जिससे मां-बाप बच्चे पर नज़र भी रख सकें और प्रैम को खींचते भी रहें.
समय के साथ प्रैम दुनियाभर में इस्तेमाल होने लगे. हालांकि दूसरे देशों के मुकाबले भारत में अभी इसका चलन कम है.