तो, ज़िंदगी का बड़ा फ़ैसला कब लिया जाना चाहिए?

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तो, ज़िंदगी का बड़ा फ़ैसला कब लिया जाना चाहिए?

शादी, तलाक़, नौकरी बदलना या फिर कोई भी और बड़ा फ़ैसला लेने का कोई सही वक़्त होता है क्या? हम जब कोई बड़ा फ़ैसला लेते हैं, तो नफ़ा-नुक़सान तोलते हैं. आंकड़ों की मदद से ख़ुद को उसके लिए तैयार करते हैं. कई बार एक झटके में भी फ़ैसले ले डालते हैं. बहुत से लोग साल के आख़िरी महीने तक फ़ैसला टालते हैं. वहीं, कुछ ऐसे भी होते हैं जो नए साल का इंतज़ार करते हैं, फ़ैसला लेने के लिए.

तो, ज़िंदगी का बड़ा फ़ैसला कब लिया जाना चाहिए?

इस सवाल का जवाब हमारे मूड पर निर्भर करता है.

हममें से बहुत से लोग सर्दियों में थोड़ा खिंचे-खिंचे से रहते हैं. मूड ख़राब रहता है. कई लोगों को तो सर्दियों में एसएडी की बीमारी यानी सीज़नल अफेक्टिव डिसऑर्डर हो जाता है.

ख़ास तौर से उत्तरी गोलार्ध में रहने वालों को. अमरीका में क़रीब दस फ़ीसद आबादी इस मर्ज़ की शिकार है. स्विटज़रलैंड में बीस साल तक चले तजुर्बे में पता चला कि वहां की 7.5 प्रतिशत आबादी एसएडी की शिकार है.

और सीज़नल मूड ख़राब होने का ये सिलसिला लंबा भी खिंच सकता है. इस मर्ज़ का शिकार औसत अमरीकी, साल के 40 फ़ीसद टाइम सीज़नल अफेक्टिव डिसऑर्डर की चपेट में रहता है.

1980 के दशक में टेलीफ़ोन से अमरीका में एक सर्वे किया गया था. जाड़े के दिनों में 92 प्रतिशत लोग एसएडी के शिकार पाए गए.

अब आपका मूड ख़राब है, तो ज़ाहिर है इसका असर आपके फ़ैसला लेने की क्षमता पर भी पड़ेगा. मामला तब और पेचीदा हो जाता है, जब हम आपको ये बताते हैं कि ख़राब मूड में लिया गया फ़ैसला हमेशा ख़राब ही नहीं होता.

ख़राब मूड में लिए गए फ़ैसले के फ़ायदे भी हैं.

जब हम डिप्रेशन में होते हैं, तो हम जोखिम को और ज़्यादा अच्छे से समझते हैं. क्योंकि ख़राब मूड में हम किसी चीज़ का लुत्फ़ नहीं ले पाते. भविष्य को लेकर ज़्यादा आशावान नहीं होते. तो, ऐसे वक़्त में किसी फ़ैसले से बेहतरी की उम्मीद नहीं करते हैं.

डिप्रेशन के शिकार लोग फ़ैसला लेते वक़्त ज़्यादा विकल्पों पर ग़ौर नहीं कर पाते. वो जोखिम नहीं लेते. सुरक्षित विकल्प को तरज़ीह देते हैं. यानी इस मूड में आप ने कोई फ़ैसला लिया, तो वो जोखिम से बचाने वाला हो सकता है.

एसएडी के शिकार लोग अपनी वित्तीय हालत को लेकर जो फ़ैसले लेते हैं, वो ज़्यादातर सही साबित होते हैं.

फ़ैसला लेने वाला अगर जोखिम कम लेना चाहता है, तो ये बुरी बात नहीं होती.

इसकी वजह है.

जो लोग आशावादी होते हैं. दिमाग़ी तौर पर वो ये सोचते हैं कि उन्हें नुक़सान होगा ही नहीं. वो बुरा तजुर्बा नहीं करेंगे. वो ये सोचते हैं कि भविष्य बेहतर होगा. हालात क़ाबू में ही रहेंगे.

वहीं, डिप्रेशन के शिकार लोग निराशावादी होते हैं. उन्हें भविष्य को लेकर बहुत उम्मीद नहीं होती. यानी वो जोखिम का ज़्यादा सटीक हिसाब लगाते हैं.

हालांकि, ये ज़रूरी नहीं कि डिप्रेशन में वो भविष्य की सही तस्वीर देख पाते हैं. देखा गया है कि डिप्रेशन के शिकार लोग विश्व कप के मैचों की सही भविष्यवाणी तक नहीं कर पाते.

एक और बात है.

जो लोग आशावादी होते हैं. वो बेहतर भविष्य के लिए पूरी ताक़त से काम भी करते हैं. करियर में ज़्यादा कामयाब होते हैं. उनके रिश्ते बेहतर होते हैं. आशावादी लोग ये भी सोचते हैं कि उन्हें कोई बीमारी नहीं होगी. नतीजा ये कि उनकी सेहत भी बेहतर होती है.

लेकिन, कई बार ज़िंदगी के बड़े फ़ैसले लेने के लिए गर्मियों के आने का इंतज़ार करना भी ठीक हो सकता है. उन दिनों में रोशनी ज़्यादा होती है. चटख माहौल में अनिर्णय की स्थिति नहीं रहती. फ़ैसला लेने में आसानी होती है.

कुल मिलाकर हम किस नतीजे पर पहुंचे?

हमारे मूड और फ़ैसला लेने की क्षमता के बीच संबंध पेचीदा है.

अगर आप कोई बड़ा फ़ैसला लेना चाहते हैं, तो ये देखिए कि वो फ़ैसला क्या है? क्या उससे बहुत भारी नुक़सान की भी आशंका है? क्या उसमें सावधानी बरतने की ज़रूरत है? अगर ऐसा है, तो सर्दियों के दिनों में ये फ़ैसला लेना ज़्यादा ठीक होगा.

लेकिन, अगर कोई फ़ैसला जोखिम नहीं लेने वाला है. जिसमें चित होने पर तो फ़ायदा है ही, पट रहने पर भी नुक़सान ज़्यादा नहीं होना है, तो गर्मी आने का इंतज़ार कर लीजिए.

अनिर्णय के शिकार हैं, तो भी मौसम के खुलने और चटख दिनों के आने का इंतज़ार करना ज़्यादा सही रहेगा. हो सकता है कि बड़े दिन होने पर आपका अनिर्णय भी ख़त्म हो जाए.

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